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प्रेग्नेंट बिलकिस के हाथ-पांव तोड़े, गैंगरेप किया, 2 बच्चे खोए:22 साल से लड़ रहीं, पति-बच्चों के साथ छिपकर रहने को मजबूर

बिलकिस बानो केस के दोषियों की सजा माफी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार का फैसला रद्द कर दिया है। सभी 11 दोषियों को दो हफ्ते के भीतर सरेंडर करने का आदेश दिया गया है। बिलकिस के साथ गैंगरेप हुए करीब 22 साल बीत चुके हैं।

बिलकिस पहले गुजरात पुलिस से लड़ी। दोषी नहीं मिले, कहकर केस में क्लोजर रिपोर्ट लगा दी गई थी। केस CBI के पास ट्रांसफर हुआ। 15 साल की लंबी लड़ाई के बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने भी फैसला बरकरार रखा।

15 अगस्त, 2022 को फिर वो दिन आया, जब गुजरात सरकार ने दोषियों की सजा माफ कर उन्हें रिहा कर दिया। बिलकिस फिर लड़ी, उसे करीब डेढ़ साल बाद फिर न्याय मिला है।

दैनिक भास्कर बीते कई साल से बिलकिस केस को फॉलो करता रहा है, इस दौरान हम उन जगहों पर गए जहां बिलकिस के साथ गैंगरेप हुआ, दोषियों से मिले, गुजरात सरकार के फैसले को इनवेस्टिगेट किया। पढ़िए इस केस के बारे में सब कुछ…

जब ये सब शुरू हुआ…
ये सब शुरू हुआ जब 27 फरवरी, 2002 को अयोध्या से गुजरात आ रही साबरमती एक्सप्रेस के दो कोच में आग लगा दी गई। इसमें 59 तीर्थयात्री मारे गए। मरने वालों में 9 पुरुष, 25 बच्चे और 25 महिलाएं शामिल थीं। कुछ ही घंटों बाद गुजरात के कई हिस्सों से हिंसा भड़कने की खबरें आने लगीं। ये हिंसा रात होते-होते गोधरा से करीब 50 किलोमीटर दूर दाहोद के गांव रंधीकपुर की एक बस्ती तक भी पहुंच गई।

केस के इकलौते गवाह सद्दाम की आंखो देखी
‘मैं जब होश में आया तो अम्मी की छाती पर तलवारों के घाव थे। उनके तन पर एक भी कपड़ा नहीं था। मैं जोर-जोर से चिल्लाया, अम्मी उठो-अम्मी उठो, पर वे नहीं उठीं। वे मर चुकीं थीं’, कांपती आवाज में सद्दाम शेख ये बताते हैं। वे अब 29 साल के हैं, लेकिन ये बताते हुए आज भी डरे-घबराए 6-7 साल का वो बच्चा ही नजर आते हैं, जिसके सामने उसकी अम्मी की लाश पड़ी है।

सद्दाम शेख ये बताते हुए अपने 4 साल के बच्चे को छाती से थोड़ा और करीब चिपका लेते हैं। फिर सुनाना शुरू करते हैं- ‘वह 27 फरवरी 2002 की देर शाम थी, अचानक 4-5 बड़ी गाड़ियों में भरकर लोग आए। वे चिल्ला रहे थे, मारो, जला दो, लेकिन बस्ती के नौजवान, औरतें, बुजुर्ग दीवार बनकर खड़े हो गए। उन्हें लौटना पड़ा।

अगले दिन हम घर छोड़कर निकल गए। 3 दिन तक केसर बाग के जंगलों में करीब 40 किलोमीटर पैदल चल चुके थे। ये 3 मार्च 2002, संडे का दिन था, जब हमें कुछ लोग हमारी तरफ आते दिखे। उनके हाथ में तलवार, हंसिया, कुल्हाड़ी और लोहे के पाइप थे। वह आकर मारने-काटने लगे। एक बुजुर्ग चाचा थे, उन्होंने हाथ जोड़े कि हमें जाने दो। सब लोग गिड़गिड़ाने लगे, लेकिन उन्होंने चाचा के सिर पर पाइप मार दिया। वे वहीं गिर गए।’

सद्दाम खुद को संभालते हुए आगे कहते हैं- ‘दंगाई सबको मारने लगे। भगदड़ मच गई। मेरी अम्मी हाथ पकड़कर मुझे दूसरी तरफ लेकर भागने लगीं। तभी किसी ने मुझे मेरी अम्मी से छुड़ाकर एक गड्ढे में फेंक दिया। हमारे साथ शमीम भी थी, जिसने एक दिन पहले ही बच्ची को जन्म दिया था। उन्होंने मेरे सामने शमीम की बच्ची को खाई में फेंक दिया। मेरे ऊपर एक पत्थर रख दिया। इसके बाद मैं बेहोश हो गया।

जब होश आया तो अम्मी के बदन पर एक भी कपड़ा नहीं था
‘जब होश आया तो मेरे कानों में एक आवाज आई। पानी-पानी। वह मेरे चाचा का बेटा था। मुझसे थोड़ा छोटा। शायद 5 साल का होगा। मैं उसके लिए पानी लेने नदी के पास गया। जहां हादसा हुआ था, उसके ठीक बगल में एक नदी थी। जब तक मैं पानी लेकर आया, वह मर चुका था।

फिर मैं अम्मी के पास गया। अम्मी जमीन पर पड़ी थीं। मैंने उन्हें हिलाया। मैंने कहा- उठो अम्मी-उठो अम्मी, पर वे नहीं उठीं। उनके बदन पर एक भी कपड़ा नहीं था। वहां सब लोग मरे पड़े थे।

जब हम गांव से चले थे तो बिलकिस भी हमारे साथ थीं, लेकिन होश में आने के बाद मैंने उन्हें नहीं देखा। चारों तरफ लाशें बिखरी पड़ी थीं। मैं वहीं बैठ गया। थोड़ी देर में गांव के कुछ लोग आए, फिर पुलिस वाले आए और मुझे ले गए। अम्मी वहीं पड़ी रहीं। मैं उन्हें छोड़कर चला गया, जाना पड़ा।’

सद्दाम बताते हैं- उस जगह 6 औरतों के साथ गैंगरेप हुआ जिसमें बिलकिस, मेरी अम्मी अमीना के अलावा 4 और महिलाएं भी थीं। बिलकिस और मुझे छोड़कर सभी लोग मारे गए। दाहोद कैंप में मेरा इलाज हुआ। उसके बाद मैं अपने भाइयों के साथ कैंप में ही रहने लगा। मेरे भाई रंधीकपुर से अलग टोली में निकले थे, इसलिए बच गए।

हम वहां पहुंचे जहां-जहां गैंगरेप से पहले बिलकिस रुकी थी…
5 महीने की प्रेग्नेंट बिलकिस बानो अपनी ढाई साल की बेटी का हाथ थामे समतल, पहाड़, नदी पार करते हुए एक गांव में पहुंची। गांव का नाम था कुआंजर। उस वक्त गांव के सरपंच थे सुलेमान। सुलेमान का नौकर शंकर इस केस में कोर्ट में गवाह बना। सुलेमान उस दिन यानी 28 फरवरी को याद कर अब तक पछताते हैं। उनकी बूढ़ी आंखों में ये दुख बार-बार नजर आता है। बिलकिस को न रोक पाने का दुख, किसी को मौत से न बचा पाने का दुख।

सुलेमान लड़खड़ाती आवाज में बताते हैं, माहौल खराब होने लगा था। मेरे गांव में हिंदू ज्यादा और मुसलमान कम हैं। पुलिस को शायद लगा कि माहौल बिगड़ सकता है, तो वे मुझे गांव से दूर ले गए। घर पर मेरा नौकर शंकर था। उसने मुझ तक खबर पहुंचाई कि रंधीकपुर गांव से कुछ लोग हमारे घर आए हैं।

उस टोली में ज्यादातर औरतें और बच्चे ही थे। बिलकिस 5 महीने की प्रेग्नेंट थीं, लेकिन शमीम 9 महीने की प्रेग्नेंट थी। शंकर ने उन्हें समझाया कि यहीं रुक जाएं। उनके लिए इस हालत में ज्यादा चलना ठीक नहीं।

उन लोगों को डर था कि कहीं उनका पीछा करते-करते भीड़ यहां न आ जाए। 4-5 घंटे रुककर वे लोग चले गए। शमीम पूरे महीने की प्रेग्नेंट थीं। शंकर ने उनके साथ दाई भी भेज दी, डिलीवरी किसी भी घड़ी हो सकती थी।’ सुलेमान कहते हैं, ‘मैं अगर उस दिन होता तो शायद यह हादसा ही न होता। बिलकिस बच जातीं। एक दिन की वह बच्ची भी बच जाती। सब बच जाते।’

सुलेमान और अबेसी खाट का साझा दुख
बिलकिस और उनका परिवार कुआंजर से पैदल-पैदल एक-डेढ़ किलोमीटर चलकर पत्थनपुर गांव पहुंचे। हमारी मुलाकात साल 2002 में सरपंच रहे अबेसी खाट से हुई। वे बताते हैं, ’14 नहीं, बल्कि करीब 100 लोग यहां आए थे। एक कुएं की तरफ इशारा कर वे कहते हैं, सबने यहां से पानी पिया।

हमने उन्हें कुछ खिलाया-पिलाया। काफी लोग निकल गए, लेकिन 14 लोग यहीं रुक गए। करीब ही मौजूद एक घर में हमने उन्हें रुकवाया। एक औरत को बच्चा होने वाला था, उसका दर्द बढ़ता जा रहा था। कुछ ही घंटों में उस औरत ने एक बच्ची को जन्म दिया। हमने उन्हें जरूरत की सारी चीजें दीं।

तीसरे दिन सुबह यानी 3 मार्च 2002 को वे लोग यहां से चले गए। हमने उन्हें बहुत रोका। बिलकिस भी गर्भ से थीं। एक दिन पहले बच्ची पैदा हुई थी, जो अभी पूरे दो दिन की भी नहीं थी और भी छोटे-छोटे बच्चे उनके साथ थे।

हम नहीं चाहते थे कि वे लोग यहां से जाएं, लेकिन वे देवघर बारिया पहुंचना चाहते थे। हमने गांव के कुछ लोगों से कहा, इन्हें डैम तक छोड़ आओ। गांव से करीब एक किलोमीटर दूर एक डैम है। जब तक उन्हें वहां छोड़ा गया, सब सलामत थे।’

अबेसी खाट ने चलते वक्त हमसे कहा- ‘मैं नहीं डरता। जहां चाहो आज भी गवाही ले लो। मैं झूठ नहीं बोलूंगा। उनकी आंखें निडर थीं। सुलेमान की बूढ़ी आंखों का दुख अबेसी के चेहरे पर भी साफ नजर आता है।’

दोषी रिहा हुए तो दाहोद के रंधीकपुर गांव की बस्ती फिर खाली
CBI जांच और 15 साल की कोर्ट-कचहरी के बाद मई 2017 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने बलात्कार और हत्या के 11 दोषियों को उम्रकैद दे दी। सब जेल में थे, लेकिन इस साल 15 अगस्त को गुजरात सरकार ने सबको आजादी बख्श दी। सभी 11 दोषी जेल से बाहर आ गए।

रिहा हुए 11 दोषी
जसवंतभाई नई, गोविंदभाई नई, शैलेश भट, राधेश्याम शाह, बिपिन चंद्र जोशी, केसरभाई वोहनिया, प्रदीप मोरढ़िया, बाकाभाई वोहनिया, राजूभाई सोनी, मितेश भट और रमेश चांदना हैं। रिहाई के बाद एक फोटो सामने आई थी, जिसमें इनका घर लौटने पर माला पहनाकर स्वागत किया जा रहा था।

इस फैसले के बाद गांधीनगर से 194 किमी दूर दाहोद के रंधीकपुर गांव की यह बस्ती फिर वीरान हो गई। 20 साल पहले भी ऐसे ही हुआ था। तब शोर था, अब खामोशी है। तब मार-काट थी, अब फुसफुसाहट है। ये बिलकिस बानो का गांव है। यहां करीब 75 घर हैं, लेकिन लोग बमुश्किल चार-पांच घरों में ही हैं।

बाकी के दरवाजों पर लटकते ताले। रिहा किए गए गुनहगार भी अपने-अपने घरों से गायब हैं। रंधीकपुर में बिलकिस का मायका है। उनके घर से एक-दो किमी के दायरे में सभी दोषियों के घर हैं। रिहा लोगों में शामिल शैलेश, मितेश और श्यामसुंदर का घर तो बिलकिस के घर से महज 300 मीटर के भीतर ही है। यहां याकूब मिलते हैं।

मैंने पूछ लिया- घरों में ताले क्यों हैं?

जवाब मिला- मेरी भतीजी बिलकिस के दोषी बाहर आ गए हैं। उन्हीं से डरकर सब चले गए।

तो मैं पूछ पड़ती हूं- आप क्यों नहीं गए?

जवाब- मेरा परिवार भी जा चुका है। रात को मैं भी चला जाता हूं। बस्ती में आजकल 8 से 10 लोग ही रहते हैं, वो भी सिर्फ दिन में।

सवाल- क्या किसी को कोई धमकी मिली है?

बातचीत के दरमियान याकूब 27 फरवरी 2002 की तारीख में पहुंच जाते हैं। कहने लगते हैं- ‘इन्हीं लोगों ने उस दिन रैली निकाली थी। हाथ में हथियार और जुबान पर मारो, काटो, जला दो।

रंधीकपुर की बस्ती छोड़कर अब देवघर बारिया के रहीमाबाद कैंप में रह रही फातिमा बताती हैं- 5 दिन पहले ही हम यहां आए, जब तक गुनहगार फिर जेल नहीं जाएंगे, हम नहीं लौटेंगे। डर लगता है जो बिलकिस के साथ हुआ, वह हमारी बच्चियों के साथ न हो। काम-धंधा सब वहीं है, लेकिन अब हम यहीं रहेंगे।’

कैंप में एक बुजुर्ग महिला से भी मुलाकात होती है। 75 साल की ये महिला खुद को रिश्ते में बिलकिस की मामी बताती हैं। वे गोधरा हिंसा के बाद साल 2002 में ही यहां आई थीं और फिर वापस नहीं लौटीं। उनके पति की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी, बूढ़ी आंखों में दर्द और खौफ लिए वे कहती हैं- मैं अब वहां (रंधीकपुर) कभी नहीं जाऊंगी।

कैंप में ही मौजूद इम्तियाज घांची ने बताया, ‘ दोषियों में से एक गोविंद भाई नई पैरोल पर आया था तो उसने हमारे बच्चों को धमकाया और गाली गलौज की। मुझे भी धमकाया। मैंने थाने में शिकायत दी, कई चक्कर काटे, पर कुछ नहीं हुआ।’ मैंने पूछा, कितनी बार पैरोल पर आए थे? जवाब मिला- जेल में कम, गांव में ही ज्यादा रहते थे।

दोषियों के घर पहुंचे तो पहले भागे फिर 3 सामने आए
दैनिक भास्कर दो बार दोषियों के घर पहुंचा। पहली बार पहुंचे तो दोषी घरों से फरार थे। पहली बार पहुंचे तो रंधीकपुर में खाली पड़ी उस बस्ती के समानांतर एक और दुनिया भी मौजूद थी। यहां के लोगों के लिए 15 अगस्त 2022 खुशियां लेकर आया।

इस दुनिया में उन 11 दोषियों के घर थे, जिनके लौट के आने पर जश्न मना। रिहाई के बाद एक दोषी राधेश्याम भगवान दास शाह के घर जश्न हुआ था। मुझे उम्मीद थी कि वह घर पर मिलेंगे, सबसे पहले मैं वहीं पहुंची।

बिलकिस के घर से करीब 300 मीटर की दूरी पर दो-दो मंजिला इमारत। बिल्कुल अगल-बगल। सफेद रंग का घर, शैलेश और मितेश बंधुओं का। उससे लगा हल्के हरे रंग पर ऑरेंज पट्टी वाला घर राधेश्याम भगवान दास शाह का। शाह के घर के नीचे मेकअप की एक बड़ी दुकान। आदिवासी मुहल्ले पहुंची। दूसरे दो गुनहगार- केसर भाई खीमा वोहानिया और बाकाभाई खीमा वोहानिया का घर यहां है। बिलकिस के घर से करीब एक किलोमीटर दूर।

बाका भाई खीमा का बेटा सवाल पूछते ही भड़क गया। चेतावनी दी कि अगर रिकॉर्ड किया तो मैं यहां से चला जाऊंगा। कहने लगा, मैं तो तब 2 साल का था। मुझे कुछ याद भी नहीं। मेरी तो जिंदगी बर्बाद हो गई। मीडिया ने तब से पीछा ही नहीं छोड़ा। हमसे ऐसे मिलने आते हैं, जैसे हम कोई अजूबा हों। मेरी पढ़ाई भी रुक गई, सिर्फ दसवीं तक पढ़ सका। पढ़ता तो दुकान कौन संभालता।

सवाल- आपके पिता ने जो किया, वह ठीक था?

जवाब- क्या जब मेरे पिता ने यह किया था, आप वहां थीं, दाहोद में जो उससे पहले हो रहा था क्या आप तब थीं?

सवाल- रिहाई के बाद उस जश्न में आप भी गए थे?

जवाब- नहीं, सिर्फ मां गईं थीं।

अब उसने पलट कर मुझसे पूछा- क्या गुनहगारों का परिवार नहीं होता?

जब बिलकिस के दोषी पहली बार सामने आए…
10 से 12 सितंबर, 2023 को हम एक बार फिर उनके गांव रंधीकपुर पहुंचे। इससे पहले 3 दोषियों रमेश चंदाड़ा, शैलेश भट्ट और प्रदीप मोदिया से फोन पर बात करने की कोशिश की। पहला फोन रमेश चंदाड़ा को किया।

गुजरात दंगों के वक्त रमेश दाहोद जिले की लीमखेड़ा सीट से विधायक जसवंतसिंह भाभोर के PA यानी पर्सनल असिस्टेंट थे। रिहाई के बाद रमेश चंदाड़ा जसवंत सिंह भाभोर के साथ एक सरकारी कार्यक्रम में मंच पर भी दिखे थे।

रमेश चंदाड़ा के नंबर पर बात हुई, तो जवाब मिला- ‘वो घर पर नहीं हैं।’ हमने पूछा- कहां हैं? झल्लाहट भरा जवाब मिला- ‘पता नहीं।’ एक और दोषी शैलेश भट्ट को फोन किया, तो जवाब मिला- ‘वे घर पर नहीं हैं, गुजरात से बाहर गए हैं।’ बात कर रहे शख्स ने कहा, ‘मुझे ऊंचा सुनाई देता है, आपकी आवाज नहीं आ रही है।’

तीसरे दोषी प्रदीप मोदिया के नंबर से भी जवाब मिला कि वे गुजरात से बाहर हैं। फोन पर मिले जवाबों से एक और सवाल खड़ा हो गया, क्या सभी दोषी घर छोड़कर कहीं चले गए हैं। सवाल का जवाब तलाशने हम सभी दोषियों के घर गए। इनमें से 4 लोग हमें मिले, तीन कैमरे पर आए, एक ने इनकार कर दिया। बाकी घर से गायब हैं।

‘हमें जसवंत नई से मिलना है, ये घर उन्हीं का है क्या?’ धोती-बनियान पहने शख्स से हमने ये सवाल किया। उसने रूखी आवाज में जवाब दिया, ‘जसवंत अभी घर पर नहीं हैं।’

हमने जसवंत को कभी देखा नहीं था, लेकिन उनकी फोटो हमारे मोबाइल में थी। फोटो देखी, तो चेहरा धोती-बनियान पहने शख्स से बिल्कुल मैच कर गया। हमने उससे कहा- अरे, आप ही तो जसवंत हैं। हमारे पास आपकी फोटो है। उस शख्स ने बिना कुछ कहे, सिर्फ सिर हिलाया। ये बात पक्की हो गई कि हम जिससे मिलने आए थे, वो हमें मिल गया है।

बिलकिस केस में दोषी बका और केसर वोहनिया सगे भाई हैं। रंधीकपुर में सड़क के दोनों ओर इनके घर बने हैं। हमने बका के बारे में पूछा, तो उसने बताया, ‘पापा का एक्सीडेंट हो गया है। दाहोद के सरकारी अस्पताल में भर्ती हैं। कल-परसों तक आएंगे।’

केसर की पत्नी सुमित्रा कहती हैं, ‘बहुत बुरा वक्त था। पति घर पर नहीं थे। दो बेटियां बीमार हुईं, तो इलाज तक के पैसे नहीं थे। दोनों चल बसीं। पति के केस का मुझे पता नहीं कि क्या हुआ था और अब क्या हो रहा है।’

देर शाम बका घर के अंदर हाथों पर पट्टी बांधे एक शख्स दिखा। हमने आवाज लगाई, बका, उसने कहा- हां। हमने बका से पूछा- इलाज कैसा चल रहा है? बका ने जवाब दिया, ‘हमारे पास इतने पैसे नहीं कि किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा पाएं। सरकारी अस्पताल में दिखाकर आया हूं। सरकार भी हमारी मदद नहीं करती।’

फिर हम दोषी जसवंत नई के घर पहुंचे। बिलकिस के केस के बारे में पूछने पर जसवंत ने कहा, ‘उस दिन तो मैं घर पर था, मुझे फंसा दिया। इन 20 साल में मैंने सब खो दिया। हर साल खेती से कम से कम 1 लाख रुपए कमाता था, 20 साल में 20 लाख रुपए खोए। दो साल पहले पत्नी नहीं रही।’

सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई, पर सरकार दस्तावेज दिखाने से बचती रही
बिलकिस के दोषियों की रिहाई का केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। 27 मार्च, 2023 को हुई सुनवाई में कोर्ट ने सरकार से रिहाई के फैसले से जुड़े दस्तावेज मांगे थे। अगली दो तारीखों में भी सरकार की तरफ से दस्तावेज पेश नहीं किए गए। 9 मई को हुई सुनवाई में गुजरात सरकार के वकील ने जवाब दिया कि सब कुछ कानून के मुताबिक हुआ है।

इस पर जस्टिस जोसफ ने कहा कि अगर आपने फाइलें नहीं दिखाईं तो हम इसे कोर्ट की अवमानना मानेंगे। आप रिकॉर्ड पेश करने के लिए बाध्य हैं। आप हमसे क्यों लड़ रहे हैं? अगर सरकार ने सब कानून के हिसाब से किया है, तो उसे डरने की जरूरत नहीं है। हम बस ये देखना चाहते हैं कि दोषियों की रिहाई में कानून का पालन किया गया या नहीं।’

कोर्ट के सख्त रवैये के बावजूद गुजरात सरकार की तरफ से पेश हुए एडिशनल सॉलिसिटर जनरल (ASG) एसवी राजू बोले- ‘कई दस्तावेज गुजराती में हैं। पहले उन्हें (सरकार) खुद उन फाइलों को रिव्यू करना है।’

जस्टिस जोसफ ने साफ कहा, ‘हमने आपको रिव्यू से कहां रोका है? आप हमारे सामने रिकॉर्ड लाइए।’

जिन डॉक्यूमेंट को गुजरात सरकार छिपा रही थी, भास्कर ने इन कथित ‘कॉन्फिडेंशियल डॉक्यूमेंट्स’ को ढूंढ निकाला।

रिहाई का कॉन्फिडेंशियल डॉक्यूमेंट्स क्या कहता है…
इस डॉक्यूमेंट में 11 ऐसी टेबल्स हैं, जिन्हें आधार बनाकर दोषियों को रिहा किया गया है। हमने इन टेबल्स और पूरे डॉक्यूमेंट को गहराई से पढ़ा, तो पता चला कि दोषियों की रिहाई को लेकर ये दस्तावेज खुद ही कई सवाल खड़े कर रहे थे।

दो हिस्सों में तैयार हुई चेकलिस्ट…

रिहाई के लिए एक चेकलिस्ट तैयार की गई थी। ये चेकलिस्ट रिहाई से पहले गुजरात सरकार की टेबल तक पहुंची। यह दो हिस्सों में थी…

पार्ट-1: इसमें 16 पॉइंट्स थे। इनमें रिहाई के लिए जरूरी कानूनी प्रक्रिया से गुजरने से संबंधित सवाल थे।

  • किस तारीख को कैदी या उसकी जगह जेल सुपरिन्टेंडेंट ने रिमीशन (रिहाई) की एप्लिकेशन तैयार की?
  • कैदी कौन सी जेल में हैं?
  • सजा सुनाते वक्त कोई अवधि जैसे 20-25 साल तय हुई थी?
  • क्या केस में स्टेक होल्डर विभागों और एजेंसियों की राय ली गई?

पार्ट-2: इसमें हर कैदी का अलग से रिकॉर्ड तैयार हुआ। इसमें 29 पॉइंट्स रखे गए। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण पॉइंट्स और रिहाई की शर्तों के बीच तालमेल कम नजर आता है।

किनसे सलाह लेना जरूरी था?

कानून के मुताबिक गुजरात सरकार को दोषियों की रिहाई के लिए 5 स्टेक होल्डर्स से राय लेना जरूरी था। 5 में से तीन ने रिहाई की मंजूरी दी, लेकिन दो ने अपराध के स्वभाव को देखते हुए समय से पहले रिहा न करने की राय दी।

  • सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस, जहां की विक्टिम यानी बिलकिस है
  • इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी यानी CBI
  • डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट
  • जिस कोर्ट ने सजा सुनाई
  • फिलहाल जिस जेल में दोषी बंद थे

CBI और सेशन कोर्ट की राय सबसे जरूरी क्यों थी…
इस मामले में 5 में से 2 स्टेक होल्डर रिहाई के पक्ष में नहीं थे जबकि 3 पक्ष में थे। यानी रिहाई के खिलाफ राय रखने वाली संस्थाएं अल्पमत में रहीं, लेकिन मामला इतना भी सीधा नहीं है। ये रेयर ऑफ रेयरेस्ट केस की कैटेगरी में आता है, ऐसे में इन बातों पर ध्यान देना चाहिए…

1. मुंबई सेशन कोर्ट ने कैदियों को सभी गवाहों-सबूतों को परखने के बाद सजा दी थी। सेशन कोर्ट की सजा को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा था। यानी सेशन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस अपराध में कम से कम उम्रकैद के पक्ष में थे।

2. गुजरात पुलिस ने बिलकिस की FIR को क्लोज कर दिया था। यहां तक कि क्लोजर रिपोर्ट भी सौंप दी थी। बिलकिस ने इस केस को महाराष्ट्र में ट्रांसफर करने के लिए कोर्ट में अर्जी दी और वह मंजूर भी हुई। इसी के बाद ये केस CBI के पास आया।

CBI ने छानबीन में बिलकिस के परिवारवालों की लाशें ढूंढ निकालीं, जिन्हें नमक डालकर गलाने और खत्म करने के लिए गाड़ दिया गया था। उनकी मेडिकल जांच हुई। सेशन कोर्ट ने CBI के सबूतों को आधार बनाया और सजा सुनाई। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने भी यकीनन दस्तावेजों को जांचने के बाद इस सजा को बरकरार रखा।

बिलकिस के केस में गुजरात पुलिस पर न सिर्फ आरोप लगे, बल्कि उनकी क्लोजर रिपोर्ट के उलट CBI को सबूत मिले। इस केस में उन दोनों संस्थाओं ने रिहाई के खिलाफ निगेटिव ओपिनियन दी, जो इस केस के हर तथ्य और सबूत को गहराई से जानते थे। बाकी तीनों संस्थाएं उसी राज्य की हैं, जिस राज्य की पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट सौंपी थी।

सजा के साथ लगा जुर्माना किसी दोषी ने नहीं दिया

11 कैदियों को उम्रकैद और 6000 रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी। यह रकम भले ही छोटी हो, लेकिन कैदी इसे नहीं चुकाता है, तो उसे इसके एवज में कुछ महीने या साल की सजा काटनी होती है। दस्तावेज में जुर्माना न देने का जिक्र है, लेकिन इसके एवज में उन्हें क्या सजा मिली ये नहीं है। साथ ही जेल में व्यवहार पर इससे क्या असर पड़ा, ये भी नहीं है।

अपराध का नेचर, रिहाई के लिए सबसे अहम
समय से पहले रिहाई के लिए अपराध का नेचर सबसे महत्वपूर्ण आधार है। गुजरात सरकार के इस दस्तावेज में बिलकिस के खिलाफ हुए क्रूर अपराध के नेचर को छुपा लिया गया है। बिलकिस की साढ़े तीन साल की बेटी को पत्थर पर पटक कर मारने, 1 दिन की एक बच्ची के कत्ल और प्रेग्नेंट बिलकिस के गैंगरेप जैसी डीटेल्स का जिक्र ही नहीं है। इस घटना में एक नाबालिग लड़की के साथ भी गैंगरेप हुआ था।

डॉक्यूमेंट में कहा गया है, ‘जजमेंट कॉपी के मुताबिक, गोधरा में कारसेवकों से भरी साबरमती एक्सप्रेस गाड़ी जलने के बाद सांप्रदायिक दंगे हुए। पीड़ित और उनका परिवार हिंसा से बचने के लिए रंधीकपुर गांव से किसी दूसरी जगह जा रहे थे। उन पर हिंदू भीड़ ने केसरबाग के जंगल में हमला कर दिया। इसमें पीड़ित के साथ रेप हुआ और दूसरी मुसलमान औरतों की हत्या हो गई।’

CBI और मुंबई की सेशन कोर्ट ने कहा था- अपराध बेहद क्रूर, रिहाई न हो
सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस स्पेशल क्राइम ब्रांच/CBI ने रिहाई न होने के पक्ष में राय दी थी। CBI के जवाब में कहा गया, ‘अपराध इतना गंभीर और कुत्सित है कि बिना किसी दया के मैं इस मामले में अपनी ओपिनियन नेगेटिव देता हूं। अपराधी को समय से पहले रिहा नहीं किया जाना चाहिए।’

मुंबई सेशन कोर्ट ने सरकार के नियमों का हवाला देते हुए कहा, ‘हत्या और गैंगरेप के गंभीर अपराध की सजा भोग रहे कैदियों को आजीवन कारावास मिला है। सरकार के नियमों के मुताबिक, कैदी किसी भी हालत में रिहा नहीं किए जाने चाहिए।’

बिलकिस के इलाके के सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और जेल ने रिहाई के पक्ष में राय दी। एक दोषी राधेश्याम शाह की रिहाई के लिए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने भी सिफारिश नहीं की थी। केस में सबसे संगीन आरोप राधेश्याम पर ही थे।

बिलकिस को नोटिस भेजे बिना दोषियों को रिहा किया, कानूनन ये गलत
दोषी रिहा कर दिए गए और बिलकिस को खबर तक नहीं दी गई। कानूनन बिलकिस को नोटिस भेजा जाना चाहिए था। दोषियों की रिहाई के बाद बिलकिस की वकील शोभा गुप्ता ने सवाल उठाया कि माफी इतनी आसानी से मिलती नहीं, जितनी आसानी से इस केस में मिल गई। फिर केस अगर रेयर ऑफ रेयरेस्ट हो, तो माफी का कोई ग्राउंड ही नहीं बनता। इसमें तो हरेक फैक्ट रेयर है।

कमेटी के एक मेंबर ने कहा कि 14 साल पूरे हो चुके थे और इन दोषियों का जेल में व्यवहार बहुत अच्छा था। इसलिए इन्हें रिहा कर दिया गया। माफी की अपील के लिए ये दोनों मिनिमम ग्राउंड है। कमेटी मेंबर को पता नहीं क्यों लगा कि ये मिनिमम ही मैक्सिमम है। रिहाई से पहले एक इम्पैक्ट रिपोर्ट बनती है। इसमें चार ग्राउंड का मूल्यांकन होता है।

पहला: क्राइम का नेचर क्या इस लायक है कि दोषी रिहा हों।

दूसरा: सोसाइटी पर इनकी रिहाई का क्या असर होगा?

तीसरा: पीड़ित पर क्या असर होगा?

चौथा: इनका जेल में व्यवहार कैसा था?

रिहाई के तीसरे आधार का मूल्यांकन बिना पीड़ित को नोटिस भेजे तो हो ही नहीं सकता। कानूनन बिलकिस के पास एक नोटिस आना चाहिए था। बिलकिस को तो तब पता चला, जब मीडिया में दोषियों के स्वागत की खबरें आईं।

Supreme Court’s judgement in Article 370 Abrogation: Senior Advocate Fali S Nariman Regrets to note lack of dissenting judgement

Renowned Senior Advocate and jurist Fali S Nariman expressed regret on Friday, noting the absence of a dissenting judgment in the recent Supreme Court verdict on the abrogation of Article 370. While acknowledging that a dissenting opinion might not have altered the judgment’s outcome, Nariman highlighted its potential to enhance public understanding of the intricate and unique case regarding India’s northernmost state, Kashmir.

Speaking at the 28th Justice Sunanda Bhandare Memorial Lecture, focused on the ‘Role of the Judiciary in Empowerment of Indian Women,’ organized by the Justice Sunanda Bhandare Foundation, Nariman lamented the lack of dissent in the comprehensive judgments delivered by the constitution bench of five judges on the Article 370 case. He underscored the value of dissent as articulated by an American judge: “A dissent may salvage for tomorrow, a legal principle that has been omitted or forgotten today.”

The constitution bench, comprising Chief Justice DY Chandrachud and Justices Sanjay Kishan Kaul, Sanjiv Khanna, BR Gavai, and Surya Kant, had upheld the Centre’s decision to revoke Jammu and Kashmir’s special status under Article 370 in 2019. Nariman acknowledged that the absence of internal sovereignty in the erstwhile state and the court’s affirmation that the state government’s concurrence was unnecessary to apply the Indian Constitution were key components of the judgment.

Nariman commended Justice BV Nagarathna, the current sitting judge, for her legal knowledge and her readiness to dissent when necessary. He referred to Justice Rohinton Nariman’s book, emphasizing the importance of dissent, stating that dissent serves not only as a safety valve within a bench but also communicates to the public that the highest court is in robust health and effectively fulfilling its duties.

Justice Nagarathna, in her address, asserted that the participation of women in the judiciary is both a constitutional imperative and a crucial step toward achieving a robust, transparent, inclusive, effective, and credible judicial process. She emphasized that having more women on the bench can contribute to a more effective space for the delivery of justice in the country.